प्रिय मित्रों प्रश्न ? उत्तर भाग - ५ की पोस्ट पे आपका हार्दिक स्वागत है , मित्रों कभी कदार कुछ शुभ उतसवों पर पूजा पाठ व विशेष विधान के अवसरों पर कुछे कार्यों में ऐसी क्रीयाएं हमारे सामने होती हैं जिनसे हम पहली बार रूबरू हो रहे होते हैं , या फ़िर कई बार रूबरू होते हुए भी जानकारी नही होती कि ये क्या है , क्यों बनाया जाता है , इसका क्या लाभ है ? हमारी आज की पोस्ट इसी बात से सम्बन्ध रखती है , तो आइये आपका समय न बरबाद करता हुए बात करते है सीधे आज की पोस्ट यानी की प्रश्न की !
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प्रश्न --: स्वास्तिक क्या हैं ? हिन्दू लोग पूजा - पाठ या अन्य शुभ अवसरों पर स्वास्तिक (卐) का चिन्ह क्यों बनाते है ? इसका क्या रहस्य है ?
उत्तर --: स्वास्तिक चिह्न केवल हिन्दुओं में ही नहीं प्रचलित है अन्य धर्म सम्प्रदाय के लोग भी इसे पवित्र मानते हैं। स्वास्तिक शब्द सु+अस+क से बना है। 'सु' का अर्थ अच्छा, 'अस' का अर्थ 'सत्ता' या 'अस्तित्व' और 'क' का अर्थ 'कर्त्ता' या करने वाले से है। इस प्रकार 'स्वास्तिक ' शब्द का अर्थ हुआ 'अच्छा' या 'मंगल' करने वाला। स्वास्तिक में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैं, जो आगे चलकर मुड़ जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोड़ी और आगे की तरफ मुड़ी होती हैं। स्वास्तिक की यह आकृति दो प्रकार की होती है। प्रथम स्वास्तिक , जिसमें रेखाएँ आगे की ओर इंगित करती हुई हमारे दायीं ओर मुड़ती हैं। इसे 'स्वास्तिक ' (卐) कहते हैं। यही शुभ चिन्ह है, जो हमारी प्रगति की ओर संकेत करता है। दूसरी आकृति में रेखाएँ पीछे की ओर संकेत करती हुई हमारे बायीं ओर मुड़ती हैं। इसे 'वामावर्त स्वास्तिक ' (卍) कहतेहैं। भारतीय संस्कृति में इसे अशुभ माना जाता है। ईसाईयों में पवित्र क्रॉस (†) को लोग गले में धारण करते है , तथा स्वास्तिक को वैज्ञानिक द्रष्टिकोण से देखा जाए तो " धन आवेश " के रूप में समझ सकते है , धन आवेश अर्थात ( positive point ) दो ऋणात्मक शक्ति प्रवाहों के मिलने से धनात्मक आवेश plus ( + ) बना। यह स्वास्तिक का अपभ्रंस ही है। ईसाईयों का क्रॉस विच्छेद करने पर शब्द मिलता है - करि + आस्य , जिसका अर्थ होता है हाथी के मुख वाला। इसाइयों के पवित्र शब्द "क्राइस्ट" का संधि विच्छेद करने पर तीन शब्द मिलते है - कर + आस्य + इष्ट इसका तात्पर्य हाथी के समान मुख वाले अग्र पूज्य देव गणेश जी। हर धार्मिक, मांगलिक कार्य, पूजा या उपासना की शुरुआत स्वास्तिक का चिन्ह बनाकर की जाती है। धर्मशास्त्रों में स्वास्तिक चिन्ह के शुभ होने और बनाने के पीछे विशेष कारण बताया गया हैं। शास्त्रों में स्वास्तिक विघ्रहर्ता व मंगलमूर्ति भगवान श्री गणेश का साकार रूप माना गया है। स्वास्तिक का बायां हिस्सा गं बीजमंत्र होता है, जो भगवान श्री गणेश का स्थान माना जाता है। इसमें जो चार बिन्दियां होती हैं, उनमें गौरी, पृथ्वी, कूर्म यानी कछुआ और अनन्त देवताओं का वास माना जाता है। विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ वेदों में भी स्वास्तिक के श्री गणेश स्वरूप होने की पुष्टि होती है। हिन्दू धर्म की पूजा-उपासना में बोला जाने वाला वेदों का शांति पाठ मंत्र भी भगवान श्री गणेश के स्वास्तिक रूप का स्मरण है।
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॥ ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्ध-श्रवा-हा स्वस्ति न-ह पूषा विश्व-वेदा-हा। स्वस्ति न-ह ताक्षर्यो अरिष्ट-नेमि-हि स्वस्ति नो बृहस्पति-हि-दधातु॥
अर्थात : महान कीर्ति वाले इन्द्र हमारा कल्याण करो,विश्व के ज्ञानस्वरूप पूषादेव हमारा कल्याण करो।जिसका हथियार अटूट है ऐसे गरूड़ भगवान हमारा मंगल करो।बृहस्पति हमारा मंगल करो।
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इस मंत्र में चार बार आया स्वस्ति शब्द चार बार मंगल और शुभ की कामना से श्री गणेश का ध्यान और आवाहन है। असल में स्वास्तिक बनाने के पीछे व्यावहारिक दर्शन यही है , कि जहां माहौल और संबंधों में प्रेम, प्रसन्नता, श्री, उत्साह, उल्लास, सद्भाव, सौंदर्य, विश्वास, शुभ, मंगल और कल्याण का भाव होता है, वहीं श्री गणेश का वास होता है और उनकी कृपा से अपार सुख और सौभाग्य प्राप्त होता है।
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चूंकि श्री गणेश विघ्र हर्ता हैं, इसलिए ऐसी मंगल कामनाओं की सिद्धि में विघ्रों को दूर करने के लिए स्वास्तिक रूप में श्री गणेश स्थापना की जाती है। इसीलिए श्री गणेश को मंगलमूर्ति भी पुकारा जाता है। स्वास्तिक का आविष्कार आर्यों ने किया और पूरे विश्व में यह फैल गया।
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आज स्वास्तिक का प्रत्येक धर्म और संस्कृति में अलग-अलग रूप में इस्तेमाल किया गया है। कुछ धर्म,संगठन और समाज ने स्वास्तिक को गलत अर्थ में लेकर उसका गलत जगहों पर इस्तेमाल किया है , तो कुछ ने उसके सकारात्मक पहलू को समझा। स्वास्तिक को भारत में ही नहीं , अपितु विश्व के अन्य कई देशों में विभिन्न स्वरूपों में मान्यता प्राप्त है। जर्मनी,यूनान, फ्रांस,रोम, मिस्र,ब्रिटेन, अमेरिका,स्कैण्डिनेविया,सिसली,स्पेन,सीरिया, तिब्बत,चीन,साइप्रस और जापान आदि देशों में भी स्वास्तिक का प्रचलन किसी न किसी रूप में मिलता है।पूजा पाठ या अन्य शुभ कर्मो के अवसर पर ब्राह्मण लोग शुभत्व की प्राप्ति के लिये " स्वस्तिवाचन " करते है।
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तो मित्रों इसी के साथ विदा कीजिए , मिलते है अगली पोस्ट पे , धन्यवाद !!!
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इस पोस्ट की चर्चा, मंगलवार, दिनांक :-29/10/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" चर्चा अंक -36 पर.
जवाब देंहटाएंआप भी पधारें, सादर ....राजीव कुमार झा
आपका आभार व चर्चा हेतु धन्यवाद
हटाएंधन्यवाद , राजीव भाई
जवाब देंहटाएंबहुर बढ़िया जानकारी !
जवाब देंहटाएंबहुर बढ़िया जानकारी !
जवाब देंहटाएंसर पधारने व टिप्पणी हेतु धन्यवाद
हटाएंअच्छी जानकारी ...
जवाब देंहटाएंपधारने व टिप्पणी हेतु धन्यवाद
हटाएंबहुत सुन्दर जानकारी
जवाब देंहटाएंधन्यवाद नीरज भाई
हटाएंस्वास्तिक चक्र का अच्छा विश्लेषण ... विस्तृत जानकारी ...
जवाब देंहटाएंदिगम्बर भाई जी , आपका स्वागत है , टिप्पणी हेतु धन्यवाद
हटाएंरोचक जानकारी, धन्यवाद आपका।
जवाब देंहटाएंनई कड़ियाँ : "प्रोजेक्ट लून" जैसे प्रोजेक्ट शुरू होने चाहिए!!
चित्तौड़ की रानी - महारानी पद्मिनी
हर्षवर्धन जी , पधारने व टिप्पणी हेतु धन्यवाद
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