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~ त्याग का सम्मान ~
एक था कंजूस सेठ । इतना कंजूस कि अपने-आप पर एक धेला भी खर्च नहीं करता था। लाखों का स्वामी था , फिर भी फटे कपड़े पहने रहता। केवल एक अच्छी बात थी उसमें - कि वह सत्संग में जाता था। वहाँ भी उसे कोई नहीं पूछता था। सबसे अंत में जूतों के पास बैठ जाता और कथा सुनता रहता।
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आखिर कथा के भोग पड़ने का दिन आया , तो सब लोग भेंट चढ़ाने कोई-न-कोई वस्तु लाए। कंजूस सेठ ( भक्त ) भी एक मैले-से रुमाल में कुछ लाया। सब लोग अपनी लाई वस्तु रखते गए। सेठ भी आगे बढ़ा। अपना रुमाल खोल दिया उसनें। उसमें से निकले- अशर्फियाँ , पौंड और सोना। उन्हें पंडित जी के सामने उड़ेलकर वह जाने लगा।
पंडित जी ने कहा - नहीं-नहीं सेठ जी ! वहाँ नहीं , यहाँ मेरे पास बैठिए। ____________________________________________________________________________________________________________________________
सेठ जी ने बैठते हुए कहा - " यह तो अशर्फियों और सोने का सम्मान है पंडित जी , मेरा सम्मान तो नहीं ? "
पंडित जी बोले - " आप भूलते हैं सेठ जी ! धन तो पहले भी आपके पास था। यह आपके धन का सम्मान नहीं , धन के त्याग का सम्मान है। "
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कहानी लेखक - महात्मा श्री आनन्द स्वामी
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मित्रों व प्रिय पाठकों - कृपया अपने विचार टिप्पड़ी के रूप में ज़रूर अवगत कराएं - जिससे हमें लेखन व प्रकाशन का हौसला मिलता रहे ! धन्यवाद !
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~ त्याग का सम्मान ~
एक था कंजूस सेठ । इतना कंजूस कि अपने-आप पर एक धेला भी खर्च नहीं करता था। लाखों का स्वामी था , फिर भी फटे कपड़े पहने रहता। केवल एक अच्छी बात थी उसमें - कि वह सत्संग में जाता था। वहाँ भी उसे कोई नहीं पूछता था। सबसे अंत में जूतों के पास बैठ जाता और कथा सुनता रहता।
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आखिर कथा के भोग पड़ने का दिन आया , तो सब लोग भेंट चढ़ाने कोई-न-कोई वस्तु लाए। कंजूस सेठ ( भक्त ) भी एक मैले-से रुमाल में कुछ लाया। सब लोग अपनी लाई वस्तु रखते गए। सेठ भी आगे बढ़ा। अपना रुमाल खोल दिया उसनें। उसमें से निकले- अशर्फियाँ , पौंड और सोना। उन्हें पंडित जी के सामने उड़ेलकर वह जाने लगा।
पंडित जी ने कहा - नहीं-नहीं सेठ जी ! वहाँ नहीं , यहाँ मेरे पास बैठिए। ____________________________________________________________________________________________________________________________
सेठ जी ने बैठते हुए कहा - " यह तो अशर्फियों और सोने का सम्मान है पंडित जी , मेरा सम्मान तो नहीं ? "
पंडित जी बोले - " आप भूलते हैं सेठ जी ! धन तो पहले भी आपके पास था। यह आपके धन का सम्मान नहीं , धन के त्याग का सम्मान है। "
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कहानी लेखक - महात्मा श्री आनन्द स्वामी
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मित्रों व प्रिय पाठकों - कृपया अपने विचार टिप्पड़ी के रूप में ज़रूर अवगत कराएं - जिससे हमें लेखन व प्रकाशन का हौसला मिलता रहे ! धन्यवाद !
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बढ़िया प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंआभार -
आदरणीय धन्यवाद व स्वागत हैं |
हटाएंबहुत सुंदर ।
जवाब देंहटाएंआदरणीय सर धन्यवाद व स्वागत है |
हटाएंअच्छी कहानी ... बहुत कुछ कहती है ...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद दिगंबर भाई व सदः स्वागत है |
हटाएं|| जय श्री हरिः ||
बहुत सुंदर कहानी,सार्थक संदेश लिए.
जवाब देंहटाएंराजीव भाई , धन्यवाद व स्वागत है |
हटाएंआपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (14.03.2014) को "रंगों की बरसात लिए होली आई है (चर्चा अंक-1551)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें, वहाँ आपका स्वागत है, धन्यबाद।
जवाब देंहटाएंपोस्ट को स्थान देने हेतु धन्यवाद व स्वागत है |
हटाएं|| जय श्री हरिः ||
बहुत ही रोचक, प्रेरक एवं शिक्षाप्रद कहानी ! साझा करने के लिए धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंआदरणीय आगमन हेतु बहुत धन्यवाद , व सद: स्वागत हैं ।
हटाएं॥ जय श्री हरि: ॥
प्रेरक कहानी |
जवाब देंहटाएंआशा
आदरणीय धन्यवाद व स्वागत हैं ।
हटाएंबहुत रोचक कहानियाँ
जवाब देंहटाएंमोहित भाई धन्यवाद व स्वागत है !
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